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आत्मनिर्भरता और स्वबल से ही भारत की प्रगति संभव : मोहन भागवत

Himgiri Samachar:

नागपुर, 01 अगस्त। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के लगाए जा रहे टैरिफ से विश्व के कई देशों में असंतोष व्याप्त है। कुछ पश्चिमी देशों की यह अपेक्षा है कि भारत ट्रंप की रणनीति के आगे झुक जाएं। हालांकि भारत सरकार ने इस पर कोई आधिकारिक रुख नहीं अपनाया है, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (रा.स्व.संघ) के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने नागपुर में एक संकेतात्मक टिप्पणी करते हुए कहा कि भारत की प्रगति केवल आत्मनिर्भरता और स्वबल के माध्यम से ही संभव है।

 

भागवत शुक्रवार को कविकुलगुरु कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय के अंतर्गत डॉ. हेडगेवार अंतरराष्ट्रीय गुरुकुल के उद्घाटन समारोह में बोल रहे थे। उन्होंने कहा, "देश और समय की परिस्थितियां हमें संकेत दे रही हैं कि अब भारत को आत्मनिर्भर बनना ही होगा। केवल अपने बलबूते पर ही भारत वास्तविक प्रगति कर सकता है। हमारी अस्मिता ही हमारी शक्ति और समृद्धि का आधार है। जहाँ स्वत्व होता है, वहीं शक्ति, ओज और लक्ष्मी का वास होता है। जब हम अपने स्वत्व को भूल जाते हैं, तब गिरावट शुरू होती है। भारत का पतन भी इसी विस्मरण के कारण हुआ।"

 

उन्होंने कहा कि भारत की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। ईसा की पहली सदी से सोलहवीं सदी तक भारत विश्व में अग्रणी था, क्योंकि वह अपने स्वत्व पर अडिग था। जब भारतीयों ने अपने स्वत्व को भूलना शुरू किया, तब वह विदेशी आक्रमणों का शिकार बनने लगा। अंग्रेजों ने तो भारतीयों की बुद्धि को भी गुलाम बनाने की रणनीति अपनाई। यदि भारत को आत्मनिर्भर बनना है तो पहले उसे अपने स्वत्व की पहचान करनी होगी।

 

संस्कृत के संरक्षण और प्रसार की आवश्यकता

 

डॉ. भागवत ने कहा कि भाषा किसी भी समाज के ‘स्व’भाव को प्रकट करने का माध्यम होती है। जैसे समाज की भावना होती है, वैसी ही उसकी भाषा होती है। संस्कृत भाषा के माध्यम से भारतीय परंपरा और भावनाएं अभिव्यक्त होती रही हैं। यह आवश्यक है कि संस्कृत जनसामान्य की भाषा बने और जीवन व्यवहार में उसका उपयोग हो। इससे संस्कृत का भी पुनरुद्धार होगा।

 

उन्होंने कहा कि संस्कृत में शब्दों की सबसे अधिक संपदा है और यह कई भाषाओं की जननी है। देश की लगभग सभी भाषाओं की जड़ें संस्कृत में हैं। देशकाल और परिस्थिति के अनुसार भाषा का विकास होता है और संस्कृत को आम जन के जीवन में स्थान देना आवश्यक है।

 

संस्कृत को केवल विश्वविद्यालयों तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि “संस्कृत बोलनी चाहिए न कि केवल डिग्री के लिए पढ़नी चाहिए।” देश में ऐसे अनेक परिवार हैं, जहां परंपरा से संस्कृत का पाठ होता रहा है, लेकिन भाषा बोलने की प्रवृत्ति विकसित नहीं हुई है। संस्कृत को राजाश्रय के साथ-साथ लोकाश्रय भी मिलना चाहिए।

 

अंत में उन्होंने कहा कि देशवासियों के स्वत्व को जागृत करने के लिए देश की सभी भाषाओं के साथ-साथ संस्कृत भाषा का भी विकास होना चाहिए। इस दिशा में संस्कृत विश्वविद्यालयों को सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।

 

इस अवसर पर मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, उच्च शिक्षा मंत्री चंद्रकांत पाटील, कुलगुरु डॉ. हरेराम त्रिपाठी, पूर्व कुलगुरु डॉ. पंकज चांदे, डॉ. उमा वैद्य और निदेशक कृष्ण कुमार पांडे प्रमुख रूप से उपस्थित थे।

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