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'जॉली एलएलबी 3' रिव्यू: कोर्ट की दीवारों के बीच छिपी है संवेदनाओं की गूंज

Himgiri Samachar:

हिंदी सिनेमा में कोर्टरूम ड्रामा का सिलसिला काफी पुराना रहा है और इस जॉनर पर कई कहानियां पर्दे पर उतर चुकी हैं। साल 2013 में निर्देशक सुभाष कपूर ने भी इसी विषय पर अपनी फिल्म 'जॉली एलएलबी' पेश की। इस फिल्म में अरशद वारसी, अमृता राव, बोमन ईरानी और सौरभ शुक्ला जैसे दमदार कलाकार नजर आए। इसकी कहानी एक हिट-एंड-रन केस पर आधारित थी, जिसमें वकील जगदीश त्यागी उर्फ जॉली (अरशद वारसी) मजदूरों को न्याय दिलाने के लिए अदालत में संघर्ष करते दिखे। दर्शकों ने इस अनोखे अंदाज और सामाजिक मुद्दे को खूब सराहा।

 

सुभाष कपूर ने 2017 में 'जॉली एलएलबी 2' के जरिए फ्रेंचाइजी को आगे बढ़ाया था। इस बार उन्होंने अक्षय कुमार, हुमा कुरैशी, अनु कपूर और सौरभ शुक्ला को कास्ट किया था। फिल्म की कहानी फर्जी एनकाउंटर जैसे गंभीर मुद्दे पर आधारित थी, जिसे दर्शकों ने खूब सराहा। अक्षय ने 'जॉली' बनकर अपने अभिनय से दर्शकों का दिल जीत लिया। अब करीब 8 साल बाद सुभाष कपूर तीसरे पार्ट 'जॉली एलएलबी 3' के साथ लौटे हैं, जो 19 सितंबर को सिनेमाघरों में रिलीज हो चुकी है। इस बार भी उन्होंने हास्य और व्यंग्य के साथ एक अहम सामाजिक मुद्दे को दर्शकों के सामने रखा है।

 

जॉली की दमदार वापसी

 

'जॉली एलएलबी 3' में इस बार दर्शकों को डबल धमाका देखने को मिलता है, अक्षय कुमार और अरशद वारसी दोनों जॉली के रूप में साथ नजर आते हैं। कोर्टरूम ड्रामा को और मज़ेदार बनाने के लिए सौरभ शुक्ला भी जज बनकर एक बार फिर लौटे हैं। जहां फिल्म कॉमेडी से भरपूर है, वहीं इसकी असली ताकत है इसकी गहरी और संवेदनशील कहानी, जो किसानों की आत्महत्या और उनकी जमीनों के अवैध कब्ज़े जैसे ज्वलंत मुद्दे को सामने लाती है।

 

फिल्म की कहानी

 

फिल्म की शुरुआत राजस्थान के बीकानेर के एक छोटे से गांव से होती है, जहां किसान राजाराम सोलंकी आत्महत्या कर लेता है। वजह है, एक रियल एस्टेट कंपनी का बड़ा प्रोजेक्ट, जिसके लिए गांव की जमीन चाहिए। राजाराम अपनी जमीन देने से इंकार करता है, लेकिन धोखाधड़ी के जरिए उसकी जमीन छीन ली जाती है। कहानी कुछ साल आगे बढ़ती है और एंट्री होती है दोनों जॉली की, जगदीश त्यागी (अरशद वारसी) और जगदीश्वर मिश्रा उर्फ जॉली मिश्रा (अक्षय कुमार) की, जो दिल्ली की कोर्ट में हमेशा आपस में भिड़ते रहते हैं। तभी उनकी मुलाकात होती है जानकी (सीमा बिस्वास) से, जो राजाराम की पत्नी है और इंसाफ की तलाश में दोनों के पास पहुंचती है। इसके बाद शुरू होता है असली ड्रामा, क्या जानकी को इंसाफ मिलेगा? क्या दोनों जॉली मिलकर किसानों की लड़ाई जीत पाएंगे या फिर उनकी नोक-झोंक ही सब पर भारी पड़ेगी? यह जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी।

 

एक्टिंग

 

'जॉली एलएलबी 3' की सबसे बड़ी ताकत इसकी दमदार कास्टिंग है, जिसने कहानी को और भी प्रभावशाली बना दिया है। अक्षय कुमार ने अपने चार्म, जबरदस्त स्क्रीन प्रेजेंस और कॉमिक टाइमिंग से दर्शकों का दिल जीत लिया। अरशद वारसी अपने शानदार अभिनय और बेहतरीन वन-लाइनर्स से फिल्म में मज़ा घोलते हैं। हमेशा की तरह इस बार भी सौरभ शुक्ला ने जज सुंदर लाल त्रिपाठी के किरदार में जान डाल दी और पूरे शो की जान बन गए। अमृता राव और हुमा कुरैशी का स्क्रीन टाइम भले ही सीमित रहा हो, लेकिन उन्होंने अपने-अपने किरदार पूरी निष्ठा से निभाए। सीमा बिस्वास कम संवादों के बावजूद अपनी खामोशी से गहरी छाप छोड़ती हैं। गजराज राव नेगेटिव रोल में प्रभावी लगे, जबकि राम कपूर ने वकील की भूमिका में शानदार काम किया है। कुल मिलाकर, स्टारकास्ट ने मिलकर फिल्म को और ऊंचाई पर पहुंचा दिया है।

 

निर्देशन

 

डायरेक्टर सुभाष कपूर ने कोर्टरूम ड्रामा को इस बार व्यंग्य और हास्य के तड़के के साथ बड़े ही सधे अंदाज़ में परोसा है। उन्होंने अक्षय कुमार और अरशद वारसी की जुगलबंदी को कहानी की रीढ़ बनाया और इसमें किसानों के मुद्दे को बेहद संवेदनशील ढंग से पिरोया। धारदार डायलॉग्स और कैमरे का उम्दा इस्तेमाल दर्शकों को ऐसा अहसास दिलाते हैं मानो वे खुद अदालत की कार्यवाही का हिस्सा हों। हालांकि, फिल्म के कुछ इमोशनल हिस्सों में ज़रूरत से ज़्यादा मेलोड्रामा और कमजोर संगीत इसकी खामियों के रूप में सामने आते हैं। इसके बावजूद सुभाष कपूर ने सामाजिक संदेश और मनोरंजन के बीच बेहतरीन संतुलन बनाकर फिल्म को प्रभावी और दिलचस्प बना दिया है।

 

देखें या नहीं

 

'जॉली एलएलबी 3' मनोरंजन और सामाजिक संदेश का शानदार मिश्रण है। फिल्म की सबसे बड़ी ताकत है अक्षय कुमार और अरशद वारसी की भिड़ंत, सीमा बिस्वास का भावनाओं से भरा अभिनय, राम कपूर की दमदार पैरवी और गजराज राव का सशक्त भ्रष्ट नेता का किरदार। ये सभी मिलकर फिल्म को देखने लायक बना देते हैं। हां, कहीं-कहीं ओवरड्रामेटिक दृश्य, महिला किरदारों की सीमित मौजूदगी और फीका संगीत इसकी धार को थोड़ा कमजोर करते हैं। लेकिन इसके बावजूद फिल्म आपको हंसाने, सोचने पर मजबूर करने और आखिर में अदालत से गूंजती आवाज 'जय जवान, जय किसान' दिल में उतार देने में सफल रहती है।

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