ऊना, 07 अप्रैल। हिमाचल प्रदेश के सांईटिस्ट ने बिना खेत जोते पराली में आलू उगाने की नई तकनीक अनुसंधान कर दी है। जिसके लिए अब किसानों को खेत को जोतने की जरूरत नहीं होगी और ना ही ट्रैक्टर से जुताई का खर्च उठाना पड़ेगा। जिसका सीधा लाभ आलू उत्पादकों को मिलेगा। अब किसानों को आलू की खेती के लिए खेत जोतने का झंझट, ज़्यादा लेबर का खर्च और पानी की लागत भी कम होगी। प्रदेश में आलू उगाने को लेकर इस नई तकनीक से आलू उत्पादकों को बेहतर मुनाफा मिल सकेगा और फसल उगाने में किसानों का कम खर्चा भी होगा। वहीं फसल की बंपर पैदावार से किसान आत्मनिर्भर बनेंगें। अब छोटे व मध्यम वर्ग के किसान भी आलू की खेती कर सकेंगे।
ऊना के किसानों के लिए ये तकनीक किसी वरदान से कम नही है, क्योंकि ऊना केवल प्रदेश में ही नही बल्कि देशभर में आलू उत्पादकता के रूप में जाना जाता है। इस रिसर्च को कृषि अनुसंधान केंद्र अकरोट के सांईटिस्ट डा. सौरभ शर्मा ने कर दिखाया है, जो कि पूरी तरह से सफल रहा है। इस तकनीक की सबसे बड़ी खासियत ये है कि इसे उगाने में कोई खरपतवार नाशी स्प्रे का भी इस्तेमाल इसमें नही होता है।
इस तकनीक से आलू उत्पादकों पर आर्थिक बोझ कम होगा तो साथ-साथ मशीनरी व लेबर पर निर्भरता भी कम होगी। इसमें आलू की बिजाई के लिए पराली का इस्तेमाल होगा। जिसमें आलू के बीज को नमीयुक्त खेत में रखकर इसे पराली से ढक दिया जाएगा। फिर समयानुसार फसल को पानी से सिंचित किया जाएगा।
वैज्ञानिकों का मानना है कि इस तकनीक से आलू की फसल को केवल तीन बार ही पानी की जरूरत पड़ती है, जो कि किसानों के लिए सबसे बड़ा सकारात्मक पहलू है। इस नई तकनीक का फायदा पर्यावरण को भी होगा, क्योंकि किसानों को पराली जलानी नही पड़ेगी। किसान पराली का उपयोग अब आलू उत्पादन के लिए करेंगे और ये पराली खेत में ही डिस्पोज हो जाएगी। पराली इस समय पर्यावरण और मानव जीवन के लिए सबसे बड़ी चुनौती भी है जिसका भी समाधान निकलेगा।
कृषि अनुसंधान केंद्र अकरोट ऊना में आलू उत्पादन की इस तकनीक पर काम कर रहे कृषि वैज्ञानिक डॉ. सौरव शर्मा ने बताया कि इस तकनीक से हर किस्म का आलू तैयार होगा। इसमें आलू के उत्पादन में किसानों को खेत में मेंढ और नाली बनाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। आलू पर मिट्टी नहीं चढ़ानी पड़ेगी।
खरपतवारनाशी हानिकारक रसायन का छिडक़ाव नहीं होगा, क्योंकि धान की पराली से मल्चिंग के करण खरपतवार नहीं उग पाएंगे। वहीं इस तकनीक में लेबर की भी कम जरूरत पड़ेगी, किसी बड़ी मशीन या ट्रैक्टर की भी आवश्यकता नहीं है। आलू निकालने के लिए खेत खोदने की जरूरत नहीं होगी।
डीसी ऊना जतिन लाल ने भी इस नई रिसर्च की तारीफ की है। उन्होंने कहा कि कम लागत में आलू की फसल लगाने की ये तकनीक काबिलेतारीफ है, जिसका लाभ किसानों को होगा। चिंतपूर्णी के विधायक सुदर्शन बबलू ने भी कृषि वैज्ञानिक सौरव शर्मा के प्रयासों की सराहना की है। उन्होंने कहा कि उनके इस अनुसंधान से प्रदेश ही नहीं बल्कि देशभर के आलू उत्पादकों को लाभ मिलेगा।
आलू उत्पादन की इस नई तकनीक का सबसे बड़ा फायदा ये होगा कि इसमें पानी की ज्यादा लागत नही आएगी। केवल मात्र तीन पानी देने से फसल तैयार हो जाएगी। जबकि सामान्य तौर आलू की पक्की फसल के लिए इसके तैयार होने तक लगातार हर 10 से 12 बार पानी देना पड़ता है।
वैज्ञानिक डा. सौरव शर्मा ने बताया कि इस विधि में खरपतवार नाशी सप्रे का छिडक़ाव नही होगा। जिससे कि आलू स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक होगा। कुफरी नीलकंठ किस्म के आलू में एंटीऑक्सीडेंट और कैरोटिन एंथोसाइनिन जैसे तत्व पाए जाते हैं। ये तत्व सेहत के लिए फायदेमंद होते हैं। इस आलू में रोग प्रतिरोधक क्षमता ज्यादा होती है।